साहित्य की हर विधा अपना अलग स्थान रखती है. किस प्रकरण को कैसे रचा जाए या किसी घटना को किस रूप में परिलक्षित किया जाए इसमें समय और परिस्थिति की विशेष भूमिका होती है।
‘न कोई मील ना कोई पत्थर’ वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण जी द्वारा रचित एक ऐसी ही पुस्तक है जो अपने समय की घटना और परिस्थितियों को प्रभावी ढंग से उजागर करती है. यूँ तो रचनाकार ने अनेक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। साहित्य सृजन के नाम पर उनके पास एक बड़ा सरमाया है। लेकिन उपन्यास के रूप में आई यह उनकी पहली पुस्तक है। तीन दर्ज़न से अधिक पुस्तकों के रचनाकार विद्याभूषण जी की भाषा अत्यंत सरल, सहज, जीवंत और मर्मस्पर्शी है। उनकी कई कृतियाँ और रचनाएँ नागपुरी, गुजराती और तेलुगु आदि भाषाओं में अनुदित हैं।
विद्याभूषण जी का यह उपन्यास पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित एक शिष्ट कुलीन परिवार की कहानी है. रिश्तों को भरपूर भरोसे के संग जीने और मानवीय मूल्यों को समझने की दृष्टि से किताब महत्वपूर्ण है। जिसमें लेखक के अनुभव, विचार, भाव-संवेदना के साथ-साथ उनकी सरल-सहज रचनात्मकता को भी बख़ूबी देखा जा सकता है।
उपन्यास की शुरुआत ऐसे समय से होती है जब मानवाधिकार की बैसाखियाँ कमजोर पड़ रही हैं, असुरी मान्यताएँ सिर उठा रही हैं तब वे मद्धम सी आवाज़ में अपना क्रोध और विरोध दर्ज़ करते हुए कहते हैं- “जिस देश और समाज में दुर्घटनाओं, अपराधों, दंगों, हिंसक उपद्रवों और अमानवीय शोषण चक्र में सैंकड़ों ज़िंदगियाँ रोज तबाह हो रही हों, वहां दो-चार व्यक्तियों के जीवन-मरण के इतिवृत की क्या अहमियत हो सकती है”! मानवीय संवेदनाओं के बदलते समय की धारा को लेखक ने शिद्दत से महसूस किया है।
उपन्यास में पात्रों के रूप में रजनीकांत, उनकी सहयात्री सुधा और उनकी तीन संतानें ‘निशीथ’ ‘अनुपम’ और ‘कला’ हैं। इसके अलावा कुछ अन्य नाते-रिश्तेदार और दोस्त भी हैं। उमा, छाया, शशि आदि। पुस्तक में रजनीकांत मुख्य भूमिका में नज़र आते हैं पर नरेटर का कहना है- “किसी एक को इस कथा का केन्द्रीय पात्र घोषित नहीं किया जा सकता”। वे लिखते हैं- “कोई कथा सिर्फ एक व्यक्ति की होती भी नहीं है। हो ही नहीं सकती”। उनका यह मानने की वजह एक कहानी में अनेक पात्रों और उनसे जुड़ी कई कहानियों का होना है।
रजनीकांत की सहयात्री ‘सुधा’ लम्बी बीमारी के बाद अपने जीवन की जंग हार चुकी है। अब वह विदेह हो चुकी है पर रजनीकांत को लगता है सुधा कहीं गई है वह देर-सवेर लौट आएगी। सुधा की चिर-संचित स्मृतियाँ छिपी हैं रजनीकांत के अवचेतन की गहराइयों में। वे आगे की यात्रा करते हुए भी पीछे मुड़-मुड़कर देखते हैं। बीते वक्त की नयी पुरानी स्मृतियों के बीच वे उन चिट्ठियों-डायरियों को सहेजना नहीं भूलते जिन्हें सुधा छोड़ गयी है विरासत के रूप में।
दुख और उदासी भरे बादल वक्त-बे-वक्त बरस पड़ते हैं पर वे इस उदासी का असर ‘निशीथ’ ‘अनुपम’ और ‘कला’ पर नहीं पड़ने देना चाहते। वे सयाने होते बच्चों का यह सोचकर खास ख्याल रखते हैं कहीं वे पापा को संयत न देखकर धीरज का बांध न तोड़ दें और अपनी छलछलाती आँखें छिपा लेते हैं, जानकर “निशीथ देखेगा तो क्या कहेगा! पापा रोते हैं”।
रमाकांत और निशीथ के इस साझा दुख को लेखक ने बख़ूबी उभारा है। शायद दोनों एक-दूसरे से अपना दुख छिपा रहे हैं। यहाँ मानवीयता एक लय के रूप में प्रवाहमान है। उधर बच्चे भी वक्त की नज़ाकत को देखते हुए उम्र से पहले जरूरत से ज्यादा समझदार हो गये हैं। कुछ मौसी ‘उमा’ के समझाने और कुछ अपनी सूझबूझ से वे घर-परिवार के प्रति अपना दायित्व समझने लगे हैं खासकर पापा के प्रति। इसी शोक और संताप के बीच बेटे की शादी का ख्याल संभावनाओं के द्वार खोलने की नायक की नायाब कोशिश है।
उपन्यास में आए छोटे-छोटे सन्दर्भ बड़ा वितान बुनते हैं। जैसे- “आज की तिथि में सुधा सक्सेना नहीं हैं, किसी दिन रजनीकांत भी नहीं होंगे यह नरेटर भी नहीं रहेगा”। यथार्थ के धरातल पर खड़े नियति के खेल को सहज स्वीकारते नरेटर का यह कथन कहीं नरेटर में रजनीकांत के तो कहीं रजनीकांत में नरेटर के दर्शन कराता है।
न सिर्फ सुधा और सुधा की यादें हैं रजनीकांत के ज़ेहन में बचपन की और बहुत सारी स्मृतियाँ शेष हैं. फिर चाहे सड़क पर लेफ्ट-राइट करती गोरे सिपाहियों की पलटन हो या मामा का शादी का वह घर जहाँ माँ हमेशा काम में लगी रहती है और वो बिन साथी का अकेला बच्चा जिसे सब दुत्कारते भगाते हैं। कहकर “जाओ खेलो”! याद है वह रात भी जब माँ जोर-जोर से रो रही थी। उसे बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे कोई कहता जिन्न भूत आया है, कोई कहता उसे हिस्टीरिया हुआ है। नहीं भूले रजनीकांत मामा का दिया वह सिक्का जिसे लेकर माँ उसके एवज में दो-चार छोटे सिक्के थमा देती और बालक को मामा के आने का इन्तज़ार बना रहता।
कहीं पीपल पर भूत की तो कहीं घर में एक पाव दूध आने की यादें मिटी नहीं है। माँ के उस संघर्ष की भी नहीं जब माँ पिता के न रहने पर पिता के कपड़े काट-छांट कर दोनों भाइयों के कपड़े सिल देती और कहीं जाना होता तो पीतल का लोटा गर्म करके इस्त्री का काम लेती। नन्हा बालक मन में संकल्प धारता बड़ा होकर माँ को वह यह काम नहीं करने देगा।
स्कूल के दिन भी कम अविस्मरणीय नहीं हैं। कितना दुख दे गयी थी वो हेडमास्टर की शाबाशी जब पाजामे को घुटनों से मोड़ कमर में खोंस कर हाफ पैंट की शक्ल दे डाली थी। होशियारी के उस सबब ने भी बालक को लाचारी और निरुपाय के गहरे खंदक में डुबो दिया था।
कभी पिता की तो कभी पैसों की कमी महसूस करता बालक सुख-दुख की कड़ी के बीच चादर तानता-खींचता जीता चला जाता है। ऐसी ही न जाने कितनी अमिट छाप हैं अबोध बालमन पर। बचपन से लेकर उम्र की उतरती धूप और बालों पर उभरती सफेदी तक अनुभव और अभावों की एक बड़ी फेहरिस्त है रजनीकांत के नाम। जिसे लेखक ने सारगर्भित तरीके से अपने पाठकों के समक्ष रखा है। कहते हुए- “ज़िन्दगी एक समरभूभि है! सभा पर्व का चक्रव्यूह”।
भावुकता के चश्मे से ज़िन्दगी की सच्चाई को देखने वाले रजनीकांत महसूस करते हैं किसी एक इन्सान के न रहने से उससे जुड़े रिश्ते कैसे कमजोर पड़ जाते हैं। ससुराल में रहने वाला तनाव रजनीकांत को असहज कर जाता है। जिस घर को वे दूसरे घर का दर्जा देते रहे वहाँ रिश्तेदार होने का एहसास रजनीकांत के लिए रुतबा कम होने जैसा है। दूसरी ओर तीनों बच्चे जो बेधड़क ननिहाल चले जाया करते अब वहाँ जाने से कतराने लगे हैं। यह अफसोस बच्चों और रजनीकांत दोनों के मन में है।
‘निशीथ’ ‘अनुपम’ और ‘कला’ के निजी जीवन का दौर शुरू करने की चिंता रजनीकांत को सताए रहती है. जिसमें बेटी के ब्याह की फिक्र सबसे ऊपर है। क्रूर और कठिन समय से उबरकर जिन्दगी की रेल को पटरी पर लाने की कोशिश करते रजनीकांत कारोबार संभालने के साथ अन्य अस्त-व्यस्तताओं को नियमित कर नयी दिशा की ओर बढ़ रहे हैं. यह कहकर- “जीने के लिए निकल भागना होगा इस वीरानगी से। विगत को विस्मृति की खाइयों में धकेल कर दुख के इस खंदक से बाहर आना होगा। मृत्यु से उपजी कायर निष्क्रियता को मृत्यु के हवाले कर देना होगा। तभी सामान्य जन की तरह जी सकेंगे। शायद इसी तरह हादसों से उबर पाते होंगे लोग”। यह जीवन की एक नयी शुरुआत है जहाँ आशा, निराशा पर भारी नजर आती है।
वे नूतन पुरातन की बात नहीं करते रिश्तों की कड़ियों के टूटने-बिखरने को महसूस करते सामाजिक संबंधों के बिखराव पर चिंता जताते हुए कहते हैं- “समाज कभी सागर जैसा रहा होगा, नदियाँ भी सबके लिए बहती होंगी, तालाबों पर पूरे गाँव का कब्जा कभी होता होगा। आज तो आम इस्तेमाल के कुएं और बाड़ियां भी निजी मिल्कियत में कैद हो गयी हैं”। यहाँ स्वार्थ में लिप्त समाज की जीती-जागती मिसाल पेश की है रजनी बाबू ने।
पुस्तक न सिर्फ एक परिवार के टूटने-बिखरने से बनने-संवरने तक की कथा है बल्कि रिश्तों को पूरे भरोसे के संग जीती मनुष्यता की महक लिए एक आश्वस्ति भरी तस्वीर भी है। कहानी में जहाँ तनाव, यातना, भय और दुख है वहीं लेखक ने आशा, विश्वास, सम्भावना और संवेदनाओं के सुन्दर चित्र उकेरे हैं।
रजनीकांत के जीवन के विभिन्न पक्षों को रचनाकार ने किताब में सूक्ष्मता से दर्ज किया है। बहुत सारे मार्मिक पक्ष हैं जो कथानक और पात्रों के जरिए उभर कर आए हैं। लेखक की समर्थ और संवेदनशील भाषा पाठक के प्रवाह को बनाए रखती है। लेखक अपने आस-पास के जीवन के अच्छे अवलोकनकर्ता हैं।
उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया लगता है यह लेखक का कहानी कहने का अपना तरीका हो सकता है। किसी रचनाकार का कौशल विषय या विधा के चयन में नहीं बल्कि कहन के ढंग में है और इस कुशलता में कि वह मूल कथा में अन्य कथाओं को कैसे समाहित करता है और पाठकों का पात्रों से कितना रिश्ता कायम कर पाता है।
किताब इस बात का सबक है कि कैसे बहुत निजी और पारिवारिक लगने वाली कथा अपने समय की घटना और परिस्थितियों को सूक्ष्मता से दर्ज करती है। पुस्तक को समकालीन समय की शानदार और संवेदनशील कृति के रुप में देखा जा सकता है। प्रूफ रीडिंग के स्तर पर बिन्दु-वर्तनी संबंधी अशुद्धियों के साथ शब्दों को तोड़कर लिखा जाना बेडौल सा लगता है।
लेखक और प्रकाशक को बहुत बधाई।
ममता जयंत