नई दिल्ली। विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर दिल्ली विश्व विद्यालय के किरोड़ी मल महाविद्यालय में गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में मुख्य अतिथि के तौर पर जाकिर हुसैन कॉलेज के हिन्दी विभाग के प्रो. हरेन्द्र सिंह ने शिरकत की।
प्राचार्य प्रो. दिनेश खट्टर, विभाग प्रभारी प्रो. बीना जैन व संयोजग डॉ. अमन कुमार, डॉ . ऋतु वार्ष्णेय गुप्ता व डॉ. मंजु रानी ने भी कार्यक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए कार्यक्रम को सफल बनाया। इस दौरान आए हुए अतिथियों ने हिन्दी का वर्तमान परिदृश्य पर अपने विचार व्यक्त किए। गोष्ठी की शुरुआत दीप प्रज्जवलित कर की गई।
हिन्दी का वर्तमान परिदृश्य विषय पर प्रो हरेंद्र सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा की हिन्दी एक विराट जन समूह की भाषा है। इस भाषा में उस जन समूह की आशा, आकांक्षाएँ, स्वप्न और यथार्थ सम्मिलित हैं। आज वह ग्लोबल हो रही है तो इसके पीछे यही विराट जनसमुदाय है जो आजीविका के लिए हिलोरें मारता हुआ धरती के हर कोने को स्पन्दन कर रहा है।
आज के समय में संचार क्रांति ने इस दौर में जिस गति से विकास किया है वह अभूतपूर्व है, ऐसे अवसर पर ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां हिन्दी ने अपना वर्चस्व कायम न किया हो। इस हिन्दी के डायसपोरा को जो वैश्विक स्वरूप मिला उसमें वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व का भी बड़ा योगदान है। कोई भी राष्ट्र अपनी भाषा के माध्यम से ही अपनी जन आकांक्षाओं को नया रूप दे सकता है साथ ही जन भावनाओं को जन भाषा के माध्यम से अपनी राजनीतिक पैठ और शक्ति भी बना सकता है।
उन्होंने कहा कि आज हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। भाषा शोध अध्ययन का एक आँकड़ा हमें बताता है कि हिन्दी के बोलने व समझने वालों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन है यह आँकड़ा 2005 का है। तब से आज तक हिन्दी की स्थिति और मज़बूत हुई है।
यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार 137 देशों में हिन्दी किसी न किसी रूप में प्रयोग की जाती है। इन हिन्दी प्रयोक्ताओं को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं। पहले वे राष्ट्र हैं जो हमारे आस पास हैं या पड़ोसी हैं। जिनमें नेपाल, चीन, बांग्ला देश, श्रीलंका हांगकांग, सिंगापुर, मालदीव, पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, इंडोनेशिया, थाईलैण्ड, म्यांमार, मलेशिया, तिब्बत, भूटान आदि देश हैं।
दूसरी श्रेणी में वे देश हैं जो भारत मूल के अप्रवासी भारतवंशी बहुल राष्ट्र हैं जिनमें मारिशस, फ़िजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुदना और दक्षिण अफ्रिका जैसे देश हैं। तीसरा वर्ग उन उन्नत राष्ट्रों का जहां रोजगार के लिए, ज्ञान के लिए, भारत से गये जन हैं या नई पीढ़ी के नौजवान हैं, जो मूलत: आजीविका के लिए विदेशों में हैं। जिसमें ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, रूस, नार्वे, हॉलैंड आदि राष्ट्र शामिल हैं।
इसके अलावा उन्होंने हिन्दी भाषा के लिए खतरों की चर्चा करते हुए कहा कि कि हिन्दी जिस देवनागरी लिपि में लिखी जाती है आज सबसे बड़ा खतरा इस लिपि का है। हिन्दी भाषा तो विकसित हो रही है लेकिन लिपि सिकुड़ रही है। ये जो नया हिन्दी भाषी वर्ग है यह जहां उसे वैश्विक बना रहा है। संचार के आधुनिकतावाद साधनों से जोड़ रहा वहीं उसकी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग कर रहा है। दुनियाँ की कोई भी भाषा और लिपि उस देश की सांस्कृतिक प्रतीक भी होती है। यदि हमने अपनी देवनागरी लिपि खो दी तो हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों, मिथकों, परंपराओं को यह एक बड़ा खतरा बन जाएगा।
ऐसे में हम भाषा हिन्दी को जानेंगे लेकिन अपनी जड़ों से, अपनी विरासत से कट भी सकते हैं। यहाँ थोड़ा सावधान होने की ज़रूरत है। आज हमारा राजनीतिक नेतृत्व जिस तरह से अपनी हिन्दी का देश विदेश के सार्वजनिक मंचों पर स्वाभिमान के साथ प्रयोग करता है उससे देश की नौकरशाही का भी रुझान बदल रहा है। यह हिन्दी के लिए स्वाभिमान और सुकून का समय है।