
अखबार में एक घटना पढ़ी, बड़ी ही मार्मिक थी। एक मजदूर अपनी गर्भवती पत्नी और अपनी बेटी को हाथ गाड़ी पर बैठा कर 800 किलोमीटर दूर अपने गांव पहुंचा। शुरुआत में तो पैदल ही निकले थे। हैदराबाद से मध्य प्रदेश के बालाघाट के एक छोटे से गांव के लिए। जब पत्नी और बेटी के पैरों ने जवाब दे दिया तो उस मजदूर ने हाथ गाड़ी बनाकर उन दोनों को सामान सहित उस पर बैठाया और खींचते हुए अपने गांव तक पहुंचा। 17 दिन का वक्त लगा 800 किलोमीटर की दूरी तय करने में। काफी दिनों से ऐसी कई घटनाएं मैं अखबारों में पढ़ रही हूं। कभी कोई छोटी बच्ची घर पहुंचने से पहले ही मर गई।
कभी कोई दूसरा मजदूर पैदल चलते चलते थक गया उसकी सांसे वही थम गई। कोरोना से तो लड़ लेंगे, लेकिन भूख से कैसे लड़ेंगे लोग? अभी पिछले हफ्ते ही रेलवे ट्रैक पर 16 बेचारे मजदूर कटकर मर गए वे भी अपने घर ही जा रहे थे। सड़कों पर पुलिस वाले रोकते हैं लोग, शक करते हैं इसलिए रेल की पटरियों के रास्ते जा रहे थे और उन्हीं पटरियों पर सो गए। निकल गई ट्रेन उनपर से, चली गई सारे मजदूरों की जान और पीछे छूट गए उनकी बेबसी के निशान। रेलवे ट्रैक पर पड़ी उन रोटियों ने उन मज़दूरों की अलग ही कहानी कह दी। और कितना बुरा मंजर देखने को मिलेगा? ये बेचारे कीट पतंगो जैसी जिंदगी जीते हैं और अभी भी जी रहे हैं।
एक एक रोटी के लिए तरसते है, पाई पाई जोड़ कर अपने बच्चों का पेट भरते हैं। इनकी आमदनी का क्या सहारा है, सिर्फ और सिर्फ मजदूरी। जो ये लोग करना जानते हैं वही कर पाते है। लॉक डाउन के कारण सारी फैक्ट्रियां, सारी कंपनियां बंद हो गई। इनसे इनका काम छिन गया और अब पता नहीं कब काम मिलेगा। सिर्फ यही आस रहती है कि अब घर को लौट चलें, अपने गांव चले जाएं वहां तो मदद मिलेगी, वहां तो कुछ ना कुछ कर लेंगे, अपने परिवार के साथ रह लेंगे। ये लोग अपना घर बार छोड़कर निकले थे काम ढूंढने। ये वे लोग हैं जो एक छोटे से गांव से निकलकर बड़े-बड़े शहरों में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में हाथ पैर घिसके काम करते हैं, अपना खून पसीना बहाते हैं और जो पैसे पाते हैं उससे अपना पेट भरते और बाकी अपने गांव भेज देते अपने परिवारों के लिए।
लेकिन अब इनकी जिंदगी में वह भी नहीं रहा। सरकार सहायता देने का कह रही है उन्हें अपने घर भेजने का साधन भी देने लगी है लेकिन सरकार ने क्या-क्या दे पाएगी? कुछ मजदूर तो अपने घर पहुंचने लगे हैं लेकिन कुछ ऐसे हैं जो अभी भी रास्ते में भटक रहे हैं। न जाने कितने किलोमीटर तक पैदल भूखे धूप में चलते हुए वे लोग कितना कुछ सहन कर रहे हैं। उनकी तकलीफ का अंदाजा हम अपने घर में कूलर पंखे ए.सी के सामने बैठकर नहीं लगा सकते। इतनी कड़कती धूप में पैदल चलना वह भी भूखे पेट। कोई भरोसा नहीं कि खाना कब मिलेगा, कैसे मिलेगा। इस महामारी के दौर में सबसे ज्यादा संघर्ष तो ये मजदूर कर रहे हैं।
लॉक डाउन को 2 महीने होने वाले हैं और अब जाकर रेल सुविधाएं और बस सुविधाएं कुछ शुरू होने को है। ट्रकों में भर भर के न जाने कितने मजदूर अपने घर की ओर रवाना हो रहे हैं लेकिन पिछले दो महीनों में इन्हीं मजदूरों ने कितना संघर्ष किया है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। किसी ने सही कहा है कि गुनाह पासपोर्ट का था और राशन कार्ड भुगत रहा है। दूसरी तरफ प्राइवेट कंपनियों के कर्मचारी जो 2 महीने से घर से काम कर रहे हैं उन्हें तो सैलरी मिल रही है लेकिन जहां वर्क फ्रॉम होम का ऑप्शन नहीं है उन कर्मचारियों का क्या? उन्हें तो सैलरी भी नहीं मिल रही है। और तो और कइयों की सैलरी काम करने के बावजूद काटी जा रही है जिन कंपनियों में इन लोगों ने पूरे समर्पण से काम किया आज वे ही कंपनियां अपने कर्मचारियों को प्रताड़ित कर रही है बजाय उनकी मदद करने के। कोई नहीं जानता देश के हालात कैसे सुधरेंगे। आशा है ये मंज़र जल्द ही बदल जाए।
– शिवांगी पुरोहित, स्वतंत्र लेखिका