सत्यकेतन समाचार, नई दिल्ली: भारतीय संविधान के चौथे भाग में उल्लिखित नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाय। 1948 में डॉ॰ राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था। 1952 में लक्षमणस्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग, तथा 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुशंशाओं के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति (Education Policy) पर एक प्रस्ताव प्रकाशित किया गया जिसमें ‘राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशल’ युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया। मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (Education Policy) लागू की गई, जो अब तक चल रही है।
1968 की शिक्षा नीति और उसके बाद संपादित करें
1/4/1968 की राष्ट्रीय नीति आजादी के बाद के इतिहास में एक अहम कदम थी। उसका उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ करना था। उसमें शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाने पर जोर दिया गया था। साथ ही उस शिक्षा नीति (Education Policy) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर नैतिक मूल्यों को विकसित करने पर तथा शिक्षा और जीवन में गहरा रिश्ता कायम करने पर भी ध्यान दिया गया था।
1/5/1968 की नीति लागू होने के बाद देश में शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। आज गांवों में रहने वाले 90 प्रतिशत से अधिक लोगों के लिए एक किलोमीटर के पफासले के भीतर प्राथमिक विद्यालय उपलब्ध हैं। अन्य स्तरों पर भी शिक्षा की सुविधाएं पहले के मुकाबले कहीं अधिक बढ़ी हैं। 1.6 पूरे देश में शिक्षा की समान संरचना और लगभग सभी राज्यों द्वारा 10+2+3 की प्रणाली को मान लेना शायद 1968 की नीति की सबसे बड़ी देन है। इस प्रणाली के अनुसार स्कूली पाठ्यक्रम में छात्र-छात्राओं को एक समान शिक्षा देने के अलावा विज्ञान व गणित को अनिवार्य विषय बनाया गया और कार्यानुभव को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया।