कोरोना वायरस संक्रमण के तेज़ी से बढ़ते मामलों के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस महामारी को रोकने के भारत के प्रयासों की सराहना की है.
डब्लूएचओ के कार्यकारी निदेशक डॉ. माइकल रेयान ने कहा कि भारत ने चेचक और पोलियो जैसी बीमारियों से लड़ने में भी दुनिया को राह दिखाई है.
डॉक्टर माइकल रेयान ने कहा, “चीन की तरह भारत भी एक बड़ी आबादी वाला देश है. इस महामारी का भविष्य इस बात से तय होगा कि बड़ी और घनी आबादी वाले देशों में क्या कुछ होता है. इसलिए यह ज़रूरी है कि भारत जनस्वास्थ्य के स्तर पर बड़े और सख़्त कदम उठाए और सोसाइटी के स्तर पर इसे रोकने, नियंत्रित करने की कोशिशों से ज़िंदगियां बचाए.”
उन्होंने कहा, “भारत ने दो गंभीर बीमारियों, चेचक और पोलियो से लड़ने में भी दुनिया को राह दिखाई थी. चेचक वो गंभीर बीमारी थी जिसकी वजह से जो मौतें हुईं वो दुनिया की सारी लड़ाइयों में हुई मौतों से भी ज़्यादा थीं.”
डॉक्टर माइकल रेयान ने कहा कि भारत ने जनस्वास्थ्य पर ध्यान दिया और बीमारी का अंत करके दुनिया को एक बेहतरीन तोहफ़ा दिया.
पोलियो को भी हराया
भारत ने पोलियो को भी हराया. सर्विलांस के ज़रिए लोगों को ढूंढ़ा, मामलों की पड़ताल की और टीकाकरण शुरू किया. भारत ने वो हर चीज़ की जिसकी ज़रूरत इस बीमारी से निपटने के लिए थी.
भारत के पास बेहतरीन क्षमता है… जब समुदायों को लामबंद किया जाता है, सिविल सोसाइटी सक्रिय होती हैं, जब महानिदेशक कुछ कहते हैं राज्यों के प्रमुख और सरकारें समाज तक वो सब पहुंचाती हैं और एक्शन लेती हैं.
जब तक हम दूसरे समाधान तलाश रहे हैं तब तक जो सावधानियां बरत सकते हैं वो बरतें.
यह बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत जैसे देशों ने राह दिखाई है और दुनिया को दिखाया है कि क्या किया जा सकता है. जैसे कि उन्होंने पहले किया और राज्य के प्रमुख बेहद आक्रामक रुख अपनाकर जनस्वास्थ्य की दिशा में कदम उठाएं तो समाज के लोगों पर असर होगा और महामारी से निजात मिलेगी.
भारत ने चेचक और पोलियो से लड़ने को लेकर जो मुहिम शुरू की थी उसकी तारीफ़ दुनियाभर में हुई.
चेचक के ख़िलाफ़ अभियान
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, चेचक की बीमारी करीब 3000 सालों तक इंसानों के लिए मुसीबत बनी रही और इसकी वजह से सिर्फ़ 20वीं सदी में करीब 30 करोड़ लोगों की मौत हुई.
हालांकि दुनियाभर के देशों ने इस बीमारी से निपटने के लिए प्रयास किए और साल 1977 में चेचक का आखिरी ज्ञात मामला सोमालिया में सामने आया.
चेचक के ख़िलाफ़ लड़ाई का ऐतिहासिक पल तब आया जब डब्ल्यूएचओ ने दिसंबर 1979 में इसके अंत की पुष्टि की. इसके पांच महीने बाद मई 1980 में 33वीं वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में इस बात की आधिकारिक घोषणा की गई कि ”दुनिया के सभी देशों और इसके लोगों को चेचक से आज़ादी मिल गई है.”
आज़ादी के वक्त भारत में चेचक के सबसे अधिक मामले सामने आ रहे थे. मई 1948 में भारत सरकार ने इस बीमारी से निपटने को लेकर आधिकारिक बयान जारी किया और चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) के किंग्स इंस्टीट्यूट में बीसीजी टीका बनाने की लैब शुरू की गई.
साल 1949 में भारत में स्कूल के स्तर पर सभी राज्यों में बीसीजी टीकाकरण की शुरुआत की गई. और साल 1951 में इसे बड़े स्तर पर देश भर में लागू किया गया.
वर्ल्ड हेल्थ असेंबली ने साल 1958 चेचक को जड़ से ख़त्म करने को लेकर एक रेजोल्यूशन पास किया, जिसके बाद आने वाले सालों में दुनियाभर में इसे लेकर स्वास्थ्य कार्यक्रमों में बड़ा बदलाव दिखा. भारत ने साल 1962 में राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन कार्यक्रम (NSEP) की शुरुआत की, जिसका लक्ष्य तीन सालों में पूरी आबादी को चेचक के टीके देना था.
साल 1967-68 में चेचक उन्मूलन कार्यक्रम में कुछ बदलाव किए गए और फिर निगरानी, महामारी की जांच की कोशिशें भी शुरू हुईं.
साल 1973 के मध्य तक भारत में अधिकतर राज्यों में ये प्रयास काम आए और चेचक सिर्फ़ उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और कुछ अन्य राज्यों में ही दिखा. इसके बाद इसी साल सभी राज्यों में बड़े स्तर पर अभियान चलाकर घर-घर जाकर चेचक के मामले पकड़ने की कोशिश की गई. साल 1974 में सरकार के प्रयासों से चेचक के 188000 मामले सामने आए. हालांकि इस दौरान 31000 लोगों की मौत भी चेचक की वजह से हुई.
सरकार ने मामलों को ट्रेस करने और टीकाकरण के अभियान में तेज़ी दिखाई. साल 1975 में भारत में चेचक का आखिरी मामला सामने आया. हालांकि इसके बाद भी इस बीमारी को लेकर निगरानी जारी रही.
साल 1977 को भारत को चेचक मुक्त घोषित किया. चेचक जैसी महामारी से पूरी तरह छुटकारा पाने में आज़ाद भारत को तीन दशक से भी अधिक वक़्त लगा.