योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं – विपश्यना, भावातीत ध्यान और हठयोग।

योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं – विपश्यना, भावातीत ध्यान और हठयोग।

लेखक, डॉ. अरविंद कुमार त्यागी

विपश्यना (संस्कृत) या विपस्सना (पालि) यह गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई एक बौद्ध योग साधना हैं। विपश्यना का अर्थ है – विशेष प्रकार से देखना (वि + पश्य + ना)।

योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं – विपश्यना, भावातीत ध्यान और हठयोग।

भगवान बुद्ध ने ध्यान की ‘विपश्यना-साधना’ द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किया था। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में से एक विपश्यना भी है। यह वास्तव में सत्य की उपासना है। सत्य में जीने का अभ्यास है। विपश्यना इसी क्षण में यानी तत्काल में जीने की कला है। भूत की चिंताएं और भविष्य की आशंकाओं में जीने की जगह भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को आज के बारे में सोचने केलिए कहा। विपश्यना सम्यक् ज्ञान है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझकर जो आचरण होगा, वही सही और कल्याणकारी सम्यक आचरण होगा। विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि यह जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है।

क्या है विपश्यना

विपश्यना ध्यान का एक तरीका है। करीब 2500 साल पहले गौतम बुद्ध ने इसकी खोज की थी। बीच में यह विद्या लुप्त हो गई थी। दिवंगत सत्यनारायण गोयनका सन 1969 में इसे म्यांमार से भारत लेकर आए। कोर्स के पहले तीन दिन आती-जाती सांस को लगातार देखना होता है। इसे ‘आनापान ‘ कहते हैं। आनापान दो शब्दों आन और अपान से बना है। आन मतलब आने वाली सांस। अपान मतलब जाने वाली सांस। इसमें किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठकर आंखें बंद की जाती हैं। कमर और गर्दन सीधी रखी जाती है। फिर अपनी नाक के दोनों छेदों पर मन को फोकस कर दिया जाता है और हर सांस को नाक में आते-जाते महसूस किया जाता है। सांस नॉर्मल तरीके से ही लेनी होती है। सांस देखते-देखते एहसास होता है कि हमारा मन कितना चंचल है। मन या तो अतीत की पुरानी बातों में या फिर भविष्य की कल्पनाओं में गोता लगाता है । मन को बार-बार खींचकर सांस पर लाना पड़ता है। पहले तीन दिन बस यही करना होता है।

चौथे दिन विपश्यना सिखाई जाती है और बाकी 7 दिन इसी की प्रैक्टिस कराई जाती है। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: विशिष्ट प्रकार से देखना यानी जो चीज जैसी है, उसे उसके असली रूप में देखना, ना कि जैसी कि उसकी व्याख्या हमारा अवचेतन मन कर दे। विपश्यना में शरीर की संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों में संवेदनाएं हर वक्त पैदा होती रहती हैं। संवेदना परेशान करने वाली भी हो सकती है जैसे कि गर्मी-सर्दी, दर्द, दबाव, खुजली आदि और संवेदना सुखद भी हो सकती है, मसलन : वाइब्रेशंस महसूस होना। ना सुखद संवेदना से राग पालना है, ना दुखद से द्वेष। बस साक्षी भाव से देखना है। मन में यह भाव लाना है कि संवेदना सुखद हो या दुखद, वह हमेशा नहीं बनी रहेगी। इसलिए समता में, संतुलन की स्थिति में रहना है। विपश्यना से हमें वर्तमान में रहने की प्रैक्टिस होती है और वर्तमान को समता से देखने की भी। ऐसे में मन में विकार नहीं पैदा होंगे। किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थिति से ना राग, ना द्वेष। बाहर के हालात मन की शांति भंग नहीं कर पाते। इसी समता भाव में स्‍थित होना ही निर्वाण है। इससे इंसान सुख-दुख में भी संतुलन में रह पाता है। उसकी छोटी-मोटी बीमारियां तो यूं ही दूर हो जाती हैं।

तमाम साधनाओं की तरह इस साधना का मकसद भी दुखों से छुटकारा पाना है। हम दुखी इसलिए हैं क्योंकि हम सुखद और दुखद संवेदनाओं के प्रति बेहोशी से रिएक्ट कर जाते हैं। विपश्यना में संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट होने की प्रैक्टिस कराई जाती है। दरअसल बाहरी दुनिया में या मन के अंदर जब भी कुछ मनचाहा या अनचाहा घटता है तो मन में विकार जगता है, विकार यानी राग या द्वेष। इसका असर सबसे पहले सांसों पर पड़ता है। सामान्य तरीके से आ-जा रही सांस अनियमित हो जाती है। दूसरा असर पड़ता है हमारे शरीर पर। शरीर में अच्छी या बुरी संवेदना पैदा होती है। बाद में हम रिएक्ट करते हैं। अगर हम विकार पैदा होने पर सांस और संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट हो जाएं तो बेहोशी से, अवचेतन मन से हमारा रिएक्ट करना रुक सकता है। इसीलिए विपश्यना कोर्स में सांस और संवेदनाओं पर ध्यान लगाया जाता है। विपश्यना में सर से पांव तक बारी-बारी से हर अंग पर कुछ देर रुककर वहां की संवेदना को महसूस किया जाता है। आम जिंदगी में दुखों से बचने के लिए हम बाहरी दुनिया को मैनेज करने में जुटे रहते हैं, यहां भीतर की दुनिया को, अपने अवचेतन मन को मैनेज करना सिखाया जाता है।

विपश्यना समिति जामनगर के शोध संकलन में बर्मा के ख्यातिप्राप्त चिकित्सक डॉ . ओम प्रकाश ( अब दिल्ली अा बसे हैं ) के अनुसार खराब स्वास्थ्य के मुख्य कारण हैं चिन्ता और तनाव । तनाव से मन ऐसा कुंठित रहता हैं की व्यक्ति न तो ठीक से सोच सकता है और न सही काम कर सकता है । ऐसी स्थिति में चिंन्ता और अधिक जोर पकड़ने लगती हैं . जिससे निद्रा का ह्रास हो जाता हैं । इससे स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगता है , भूख मंद पड़ जाती है, काम करने की शक्ति समाप्त हो जाती हैं और मन विचलित रहता हैं ।यदि इस समस्या का निदान किया जाय तो पता चलेगा कि जब जब कोई व्यक्ति अपने मन में विकार जगाता है वह विचलित हो जाता हैं । कोई मनचाही बात पूरी न हो अथवा अनचाहीबात हो जाय तो मन तनाव से व्याप्त होने लगता है । यह क्रम बार – बार चलता रहे तो स्थायी रूप से चिन्तित रहने का स्वभाव बन जाता है जिससे स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है । इसके फलस्वरूप पहले छोटी – छोटी बीमारिया लगती हैं और कुछ समय बाद बड़े रोग प्रकट होने लगते हैं , यथा मधुमेह , उच्च रक्तचाप , उन्माद आदि । वस्तुतः सारे दुःखो का मुल कारण तृष्णा है । तृष्णा का समूल उच्छेद विपश्यना साधना से ही संभव है । जैसे – जैसे वस्तुओं अथवा स्थितियों को बिना राग , बिना द्वेष किए देखने का अभ्यास पुष्ट होता जाता हैं वैसे तनाव दुर होकर मन में शांन्ति समाने लगती है और काम करने की शक्ति बढ़ जाती है । जीवन में आनेवाली कठिनाइयों के बावजूद चित्त प्रसन्न रहता है और स्वास्थ्य सुधर जाता है ।

डॉ. सी. वी. जोगी ने भी यहीं मत व्यक्त किया है कि सब रोग पहले मन में घर करते हैं और बाद में शरीर पर प्रकट होते हैं । अधिकांश लोग रोगों के इस मूलभूत सिद्धांत को नहीं समझते ।भले ही रोगों को दूर करना विपश्यना का उद्देश्य नहीं हैं परंतु इसके अभ्यास से चित्त निर्मल होने लगता हैं और चित्त निर्मल होने से अनेक प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक रोग स्वतः ही दूर होने लगते हैं ।

बम्बई के प्रसिद्ध उद्योगपति श्री देशबन्धु गुप्ता का कथन है कि मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति विपश्यना के सतत् अभ्यास से लाभान्वित हो रहे हैं जैसे – माइग्रेन , हाइपरटेन्शन , संधिशोध , स्पोंडीलोसिस , दमा , मधुमेह , अस्पष्ट पीडाए , भय , दुर्व्यसन जैसे धुम्रपान , मधुपान , नशीली दवाओं का सेवन । मस्क्युलर डिस्टोफीके असाध्य रोग में भी एक रोगी को असाधारण लाभ प्राप्त हुआ हैं ।

श्री प्रवीणचन्द्र शाह ने बतलाया हैं कि मुझे ह्रत्शूल तथा उच्च रक्तचाप में लाभ पहुँचा है । विपश्यना साधना से मेरा मानस दिन प्रतिदिन स्वच्छ होता जा रहा हैं और जीवन जीने योग्य बनता जा रहा हैं ।

नासिक के व्यापारी श्री श्रवणकुमार अग्रवाल ने बतलाया हैं कि ३० वर्ष की अवस्था में मुझे मस्क्युलर डिस्ट्रोफी नाम का असाध्य रोग हो गया था । इसमें सारे शरीर की मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती है . हाथ – पैर काम करना बन्द कर देते हैं और रोगी एक अपाहिज के समान खाट पर पड़ा रहता है । इस रोग का पता लगने पर मेरे भीतर तनाव ही तनाव भरने लगे और भविष्य का जीवन सर्वथा अंधकारमय नज़र आने लगा । ऐसी स्थिति में किसी मित्र के सुझाव पर सन् १९७९ में मैंने एक विपश्यना शिविर में भाग लिया । इससे कुछ लाभ होने पर कुछ और शिविर लिए । इसके फलस्वरूप मुझे मानो नया जीवन मील गया है । पहले दो – चार कदम चलना भी बहुत कष्टप्रद था अब धीरे – धीरे एक किलोमीटर तक चल फिर सकता हूं। पहले दो – चार सीढ़ियां चढना भी बहुत दुष्कर था , अब २५ -३० सीढ़ियां आसानी से चढ़ लेता हूं । पहले २ -३ घंटे की बस अथवा रेल की यात्रा बड़ी दुःखद प्रतीत होती थी , अब १८ -२० घंटे के यात्रा के बाद भी शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है । पहले दोनों टांगों में शरीर के अन्य अवयवों का तुलना में तापमान कम रहता था , अब तापमान बढ़ा है जिससे आभास होता हैं कि रक्तसंचार बढ़ रहा है । पांवों के पंजे सिकुडते जा रहे थे , अब वे करीब आध इंच खुल गए हैं । टखने और घुटनों के जोड़ भी काफी खुल गए हैं । मांसपेशियां फिर मजबूत होने लगी है । मुझे ऐसे लगता हैं मानो कोई निर्जीव व्यक्ति फिर सजीव हो गया है ।

कनाडा के डॉ. जॉर्ज पोलैंड ने chronic sinusitis रोग से ग्रस्त वियत – नाम के एक नौजवान सिविल इंजीनियर का उदाहरण प्रस्तुत किया हैं । विवर बंद होने के कारण उसे श्वास लेने में बड़ी कठिनाई होती थी और इस कारणवश उसका सोना और काम करना हराम हो रहा था । उसने कई शल्यक्रियाएं करवाईं परंतु इनसे तनिक भी लाभ नहीं हुआ । डॉ. पोलैंड को उसने बतलाया कि उसे जब कभी घर पर या कामपर दबाव का सामना करना पड़ता तब तब उसकी हालत बदतर हो जाती । डॉक्टर अपने अनुभव से जानते थे कि दबाव को दूर करने में विपश्यना साधना बहुत कारगर है । अतः उन्होंने रोगी को १० दिन का विपश्यना शिविर लेने का सुझाव दिया । उसने मांट्रियल में पूज्य गोयन्काजी के सान्निध्य में शिविर लिया और इसके बाद अपना अभ्यास जारी रखा । छः माह बाद उसके शल्यचिकित्सक भी अचम्भे में पड़ गए कि सब इलाज छोड़ देने पर भी उस रोगी की हालत में आशातीत सुधार कैसे हो गया । एक वर्ष बाद तो इन्हीं शल्यचिकित्सकों की राय में उसकी हालत में १० प्रतिशत सुधार हो चुका था ।

सयाजी ऊ बा खिन की मान्यता तो यहां तक थी कि भगवान बुद्ध द्वारा बतलाई गई विधि के अनुसार यदि कोई व्यक्ति साधना करे तो उसमें जो निब्बान धातु उत्पन्न होगी वह इतनी प्रखर होगी कि आज के आणविक युग में यदि उसके भीतर कोई रेडियोधर्मी विष हों तो उन्हें भी निकाल बाहर कर सकती हैं ।

लेखक, डॉ. अरविंद कुमार त्यागी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *